फिल्म उद्योग ने मुझे हमेशा से ही आकर्षित किया है. इस क्षेत्र के माध्यम से असंभव रचनात्मकता लायी जा सकती है और इसके माध्यम से समाज के विशाल समूह तक आसानी से अपनी बात भी पहुचाई जा सकती है. "लज्जा" इस दृष्टि से बहुत ख़ास फिल्म है. मुझे आश्चर्य हुआ ये सोच कर कि स्क्रिप्ट रायटर और डिरेक्टर ने कितनी बारीकियों को ध्यान में रखा और बिलकुल एक साहित्य कि तरह समाज का दर्पण बना दिया इस फिल्म को. फिल्म कि ख़ास बात थी कि इसमें कहानी भी थी , शिक्षा भी थी और साथ ही साथ इसकी प्रस्तुति बेहद सुन्दर और रौचक थी.
फिल्म में लगभग चार नायिकाए है जिनमे मनीषा कोईराला ने मुख्य भूमिका निभायी है, ध्यान देने वाली बात यह है कि सभी नायिकाओं का नाम "सीता" का पर्याय है , जैसे - "वैदेही " , "मैत्रयी" , "रामदुलारी" , "जानकी"... इस तरह गौर करे तो आज के ज़माने में सभी औरते जो सीता माता का ही एक रूप है आज के पुरुष समाज जो स्वयं को "मर्यादा पुरुषोत्तम राम" समझता है उसके सामने ये सवाल उठाती है कि ---- " अगर सीता माता अशोक वाटिका में ही रावण कि बात मान लेती तो क्या राम और उनकी सेना युद्ध जीत पाते ... वो तो बिना युद्ध किये ही हार जाते... असल में तो सीता माता थी जिन्होंने रावन को अकेले ही अशोक वाटिका में हराया... और समाज ने उन्ही को चरित्रहीन घोषित कर दिया? क्यों? क्यों हर बार अग्नि परीक्षा औरत को ही देनी पड़ती है? उसे तो क्या उसकी सोच तक को बंद दिया जाता है...ऐसा क्यूँ होता है ? ? ? "
इतना ही नहीं फिल्म में बड़ी समझदारी से एक औरत से जुडी हर समस्या पर प्रकाश डाला गया है. किस तरह उसका "जन्म " एक अभिशाप माना जाता है. जब एक बेटी के पैदा होने के बाद उसे उसके ही घरवाले बेरहमी से मार देना चाहते हैं तो "रामदुलारी" उन बेशर्मो से पूछती है कि "अगर उनकी माँ के साथ भी यही हुआ होता तो वो लोग कहाँ से आते?"
मैं जब दिन में यह फिल्म देख रही थी मेरा छोटा भाई स्कूल से आया शुरू में उसने चैनल बदलने कि कोशिश कि पर एक बार जब उसने फिल्म देखनी शुरू कि तो देखता ही रह गया , मुझसे भी ज्यादा मज़ा उसे आ रहा था और मज़े कि बात तो यह कि बीच के गेप में हम दोनों में अच्छी खासी चर्चा भी हो जाती . वो कहता कि आजकल तो इतना अत्याचार नहीं होता है औरतो पर . लेकिन इस फिल्म कि खासियत यही है कि इसमें वो चीज़े भी दिखाई है जो आज से दस साल पहले हुआ करती थी और अब बिलकुल न के बराबर होती है और वो बाते भी दिखाई है जो आज भी गावो में तो क्या शहरों में सभ्य लोगो के बीच भी होती है जैसे - दहेज़. कहने कि आवश्यकता तो नहीं पर आज कल के लड़के सॉफ्टवेर इंजिनियर या सी . ए . होते हुए भी लड़की के माँ -बाप से पैसे लेते हुए नहीं शर्माते. और हम लडकियां तो बेवकूफ हैं जो ऐसे लडको का सपना देखती है जिनमे थोडा सा "आत्मा-सम्मान" बचा हो. खैर , फिल्म के सिर्फ चार दृश्य इतने ख़ास है जो कि चारो नायिकाओं के मुख्य डाइलोग हैं.
मुझे लगता है ऐसी फिल्मो का बनना बहुत ज़रूरी है - ये समाज के लिए एक झटका है और सक्रीय लोगो के लिए एक सोचने का मुद्दा. हिंदी फिल्मो कि सबसे अच्छी बात यही है कि ये हमेशा अंत में समस्या को सुलझाती है और सच्चाई कि जीत दिखाती है. हमारी संस्कृति के अनुकूल ये सिखाती है कि हमें आशा नहीं छोड़नी चाहिए क्यूंकि एक दिन बदलाव ज़रूर आएगा और सच्चाई कि जीत अवश्य होगी - और मुझे लगता है कि ये विश्वास ही अपने आप में एक बहुत बड़ी जीत है आम इंसान के लिए.
sundar sameeksha
ReplyDeleteaapke aarambh ne prabhavit kiya to poora padha...
likhte rahiye
dhanyavaad :)
ReplyDeletelovely to read you as your analysis and observations are thoughtful. keep up the same.. Richa
ReplyDeletewatch 'Speak' (2004, kristen stewart ) movie too.
ReplyDeleteThanks Vivek :) I will watch it ...
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